न घर के न घाट के – अस्तित्व दुविधा
Identity Dilemma
पद्मिनी अर्हंत
जिन हस्तियां में अपनी गलती और अपराध मानने की न हिम्मत या नीयत हो, और वो बलि की बकरी पे अपनी घटिया ज़िन्दगी और कारनामायें तोपते हैं तरह तरह के अभिनय से – कभी नमस्ते, कभी जीत का इशारा, कभी काला चश्मा पहनकर – जैसे की पूरे विश्व में केवल एक मैं ही काला चश्मा या आँख का चश्मा पहनती हो।
और उससे भी बत्तर इनकी हरकतें बंदरों वाली नाच खेल करते हुए, अपनी हुलिया पर उंगुली उठाने वाली नौटंकी में व्यस्त हों, ऐसे बेईमान व्यक्ति अपने आप को मसीहा कहते फ़िरे, तो इनके मानसिक अवस्था को ही सामने लाता है।
यह लोग जिन्हें अपनी जीवन निपटने की हुनर और धैर्य नहीं, यह भला औरों की पाप का भोज क्या ख़ाक उठाएंगे? जो यह मसीहा बन पड़े!
अगर यह महोदय गण दूसरों को तंग और दुख न दे, तो यही इनके लिए और इनके जितने भी आस पास के सगे सम्बन्धी और पूरे समाज के लिए बहुत बड़ा उपकार होगा।
मगर बात ये है की यह लोग अपने आप से भाग रहे हैं। किसी और के अस्तित्व को अपना बनाकर अपने ढोंग धोखलापन को और निछावर करते हैं।
इसी में इनकी बेवकूफी और बेचैनी बेहाल सामने आता है।
बेचारे किस्मत के मारे। अपने आप को महान मशहूर यानी प्रसिद्द कहने वाले, कितने अँधेरे मैं है, यह बात इन्हें नहीं पता।
यह इनका दोष नहीं। इनकी अल्प बुद्धि का हाल है। ऐसे होते हुए, यह न घर के न घाट के हो जाते हैं। इन पर तरस के अलावा कुछ नहीं आता। जब इंसान को अगले क्षण का ख़बर नहीं, यह निकले अपनी ऐतिहास पलटने।
यह प्रयास इन्हें सिवाय निराश और अपमान के अलावा कुछ नहीं बाँट रहा है इनको, तब भी यह अपनी हार मानने को तैयार नहीं।
अब तक इनका कब्ज़ा धन, दौलत, शोहरत और सत्ता तक था। अभी यह लोग इज़्ज़त के ठेकेदार भी हो गए। इनको इतना तो पता होनी चाहिए की इज़्ज़त देने वालों को ही इज़्ज़त मिलती है। जो दूसरों की अस्तिव को अपना बनाकर, उनके व्यक्तिगत अधिकार छीनकर फ़िर उन्हीं को निशाना बनाने वाले, भला उन्हें ही इज़्ज़त की पाठ पढ़ाएंगे?
यही हुई ना बात – चोरी और ऊपर से सीना ज़ोरि!
कब यह अपनी गलती पर ध्यान देंगे? इनका तो यही मानना है की यह लोग कभी किसी को हानि पहुंचाते नहीं। किसी के साथ अन्याय कर ही नहीं सकते।
यह दूध और चन्दन से धुले हुए है। इनकी तरह कोई संसार में धन्य है ही नहीं। अगर यह नहीं होते तो यह संसार कब का समाप्त हो जाता। इनके पवित्रता से ही जीव जंतु प्राणी के जीवित रहना संभव रहा है। वर्णा इस कलयुग में मृत्यु, शोक और दरिद्रता के अलावा है ही क्या मनुष्य की जीवन में?
चलिए आपको हम सिखाते हैं की किसी के छोटेपन को ना बढ़ाने में अपनी बड्डपन है। आप भी क्या याद करोगे।
इनका भी जवाब नहीं। क्योंकि आज तक इन लोगों की ही मन मानी चलती आयी। तो इन्होने सोच लिया की इनका ही दौर सदियों चलेगा ।
जब रुत बदलते हैं, सरकार बदलते हैं, यहाँ तक की यह रातों रात काला धन से माला माल हो जातें है तो युग और समय बदलने में इनको क्या संकट है?
आख़िर इनका इस दर्ति पर उतना ही समय है जितना अन्य जीव प्राणी का है। कई तो अपने जीवन के सफ़र पूरा नहीं कर पाते। ऐसे होते हुए इनका रोब और हुखुम जिन पर जमाते हैं जैसे की दूसरों को कुचलना इनका जनम जन्मांतर का अधिकार हो।
पृथ्वी हर 365 दिन में एक बार सूर्य की परिक्रमा करती है और हर 24 घंटे में एक बार अपनी धुरी पर घूमती है। इसके कारण २४ घंटे ४ समय – सुबह, दोपहर, शाम और रात में बटा हुआ है।
यह प्रकृति के नियम है जिसे किसी के लिए भी बदला नहीं जाता। जिन्हें भी इस प्राकृतिक के परमपरा से समस्या हो, उन्हें इस दर्ति में अनेकों बार जनम लेकर इस वातावरण का आदी होना पड़ता है। ज़रूरी नहीं इन्हें मनुष्य रूप ही प्राप्त हो।
वाह रे मसीहावों, आप लोगों ने हद पार कर ली आपके इस प्रदर्शन से।
आपको स्वयं पता नहीं आप है कौन?
और ऊपर से कोरोना का भी असर हुआ है आप मसीहा पर। शायद कोरोना को नहीं पता की आप लोग मसीहा बनकर घूम रहे है। भला कोरोना को आपके मसीहापन से क्या लेना देना? इस मामले में कोरोना बिलकुल निष्पक्ष साबित हुआ है। फ़िर भी यह जीवन है और यही आपके रंग रूप है।
इसे विलम्बना कहें या विनाश काले विपरीत बुद्धि ?
आपकी शुभ चिंतक
पद्मिनी अर्हंत
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